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. 5.81.1 बुद्धिमान् (मन उत धियोः) मन और बुद्धि को (युञ्जते) लगाते हैं।
यहाँ मन और बुद्धि को ईश्वर में लगाने का प्रसंग है, परन्तु वास्तविकता यह है कि किसी भी विषय की जानकारी के लिए और किसी भी कला में निपुणता के लिए ध्यान की नितान्त आवश्यकता रहती है। यहाँ तक कि किसी की सामान्य बात को समझने और समझाने के लिए भी ध्यान की आवश्यकता है।
वेदोक्त षट्शास्त्रों में एक शास्त्र है योगशास्त्र उसका एक सूत्र है-
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्
(तत्र) उस में जिस देश में चित्त को बाँधा या धारण किया है, उस लक्ष्य-प्रदेश में (प्रत्ययैकतानता) प्रत्यय-ज्ञानवृत्ति की एकतानता एकाग्रता बनी रहना (ध्यानम्) ध्यान है।
दर्शनों के महान् विद्वान् पं. उदयवीरजी शास्त्री ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है-जिस ध्येय विषय में चित्त को धारण किया हुआ है, उसी की वृत्ति निरन्तर उदय होती रहें, उसमें विषयान्तर की वृत्ति का तनिक भी उदय न हो, विषयान्तर से सर्वथा अछूता जो एकमात्र ध्येय चित्त का आधार जब तक बना रहता है, यही ध्यान का स्वरूप है। जितना अधिक समय तक यह बना रह सके उतनी अधिक इसकी सम्पन्नता व श्रेष्ठता समझनी चाहिए।
ध्यान की जीवन में महती आवश्यकता व महत्ता है। विद्यार्थी ध्यान के द्वारा ही विद्या को प्राप्त करते हैं। किसान ध्यान के द्वारा ही खेती-बाड़ी करते हैं। व्यापारी ध्यान के द्वारा ही व्यापार सम्पन्न करते हैं। वेतनभोगी ध्यान के द्वारा ही कार्य-व्यापार सम्पन्न करते हैं। श्रमिक ध्यान के द्वारा ही कार्य कर पाते हैं। ध्यान के द्वारा ही वक्ता, लेखक, वैज्ञानिक, राजनेता और शासक अपने-अपने कार्य सम्पन्न करते हैं। योगी को ध्यान के द्वारा ही स्थूलभूत, सूक्ष्मभूत, उभय इन्द्रिय अहंकार, महत्तत्व, प्रकृति, आत्मा और परमात्मा साक्षात्कार होता है। इन सब बातों पर विवेचन करने से यही निष्कर्ष निकलता है कि जीवन में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान है । का
विशेष पुरुषों और महापुरुषों के मार्ग में और सामान्य व्यक्तियों के मार्ग में अन्तर होता है। विशेष पुरुषों और महापुरुषों जैसी तन्मयता सामान्य व्यक्ति में किसी सीमा तक आ सकती हैं और आनी भी चाहिए।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलीलियो काम में तल्लीन थे कि उनके एक मित्र पधारे। गैलीलियो ने सम्मानसहित मित्र को अपने कमरे में बिठाया तथा फिर उसी लगन के साथ काम में जुट गये। कुछ देर के बाद उनकी माँ उनके तथा मित्र के लिए खाना लेकर आयी। वह मेज पर खाना रख गई। समय बचाने के उद्देश्य से गैलीलियो के मित्र ने अकेले खाना खा लिया तथा बाकी अलग ढक कर रख दिया।
कुछ देर बाद जब गैलीलियो का कार्य समाप्त हो गया तब वे खाने की मेज़ पर आये तथा खाली थाली (जिसमें कि उनके मित्र ने खाना खाया था) देखकर बोले, 'अरे मुझे तो इतना भी याद नहीं कि मैं पहले ही भोजन कर चुका हूँ।' इतनी लगन, मेहनत और तल्लीना ने ही गैलीलियो को सफल बनाया। मित्र हँसे बिना नहीं रह सका। उसने उनकी थाली उनके सामने रख दी।
सर आइज़क न्यूटन भुलक्कड़ भी थे। एक बार वह घोड़े पर बैठकर गाँव जा रहे थे। रास्ते में पहाड़ी पड़ी तो घोड़े से उतर गये और उसकी रास पकड़ कर पैदल चलने लगे। रास्ते में ही उस समय कोई गणित सम्बन्धी समस्या दिमाग में आई और वे उसी को हल करने में व्यस्त हो गये। जब सवाल हल हो गया और उनकी तन्द्रा टूटी तो उन्होंने देखा कि घोड़ा घर की ओर लौट रहा है और पीछे-पीछे रास पकड़े न्यूटन भी चले जा रहे हैं।
नौकर को बाज़ार से कुछ सामान खरीद कर लाना था, इसलिए उसने अपने मालिक से कहा, 'सर! मैंने आलू उबालने के लिए आग पर गर्म पानी का बर्तन रख दिया है, 5 मिनट में पानी गर्म हो जाएगा, तब आप कृपा करके ये आलू पानी में डाल दें, ताकि जब तक मैं बाज़ार से वापस आऊँ, आलू उबल जाएँ।'
वह जानता था कि मालिक अपने काम में इतने डूबे रहते हैं कि उन्हें उस वक्त दूसरे किसी काम का ध्यान नहीं रहता, यहाँ तक कि खाना खाने की भी याद नहीं रहती। इस विचार से उसने 5 मिनट का समय देखने की खातिर घड़ी भी मालिक की मेज पर ही रख दी और बाजार चला गया।
जब वह सामान खरीदकर बाज़ार से वापस आया तो यह देखकर बड़ा हैरान हुआ कि मालिक ने घड़ी तो उबलते पानी में डाल दी है और आलू वहीं के वहीं वैसे ही रखे हैं जो - अपनी खोजबीन में तन मन और मस्तिष्क की पूरी शक्ति तथा एकाग्रता से तल्लीन है, उसे बाहर की दुनिया का ख्याल कहाँ रहता है ? फिर वह घड़ी और आलू में फर्क कैसे कर पाता ? वह मालिक ओर कोई नहीं, अपने नवीन खोज ग्रंथ 'प्रिंसिपिया' के लेखक थे सर आइज़क न्यूटन
काउंटलियो निकोलेविच टॉल्सटाय (1828-1910) जब किसी कहानी या उपन्यास का सृजन कर रहे होते तो वे पात्रों के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते और उनसे मुखातिब हो जाया करते। एक दिन वे मस्क्वा सेतु के पास किसी पुलिस अफ़सर से टकरा गये। अफसर ने पुलिसिया अंदाज़ में सवाल आँखों वाली
दागा, 'ऐ बुड्ढे क्या तूने किसी नीली
खूबसूरत सी लड़की को पुल पर जाते हुए देखा है ?"
महान् लेखक ने आत्मलीन होकर कहा, 'जी हुजूर!
अभी-अभी अन्ना योपकीना नामक एक सुंदर सी लड़की ने स्क्वा नदी में छलाँग लगाई है। उसकी आँखें नीली सागर-सी गहरी संवेदनशील थीं और उसके बाल सुनहरे नहीं काले...।' 'और तूने उसे रोका नहीं बदमाश बुड्ढा चलो, थाने
चलना पड़ेगा' अफ़सर दहाड़ा।
थाने पर जब पुलिस कप्तान ने टाल्सटाय को देखा तो सकते में आ गया। उठकर सलाम ठोंका और कहा, 'सर मुझे बुलवा लिया होता। खुद क्यों आने की तकलीफ़ की ?"
टाल्सटाय हँस पड़े और बोले, 'एक कहानी खत्म करके घूमने निकला था। नायिका अन्ना योपकीना ने प्रेम में निराश होकर आत्महत्या कर ली है। जब इन इंस्पेक्टर साहब ने मुझसे सवाल किया तो मैं अपनी अन्ना के ख़याल में खोया हुआ था । कित्ती प्यारी लड़की थी अन्ना बेचारी । ' अब पुलिस इंस्पेक्टर का चेहरा देखने लायक था !
एक सजी-धजी वधू सम्बन्धियों के साथ दूल्हे की प्रतीक्षा में बैठी थी। एक व्यक्ति दौड़ता हुआ प्रयोगशाला में पहुँचा और प्रयोगरत वैज्ञानिक से बोला, 'मित्र आज तुम्हारा विवाह है। अपना यह प्रयोग बन्द करो और मेरे साथ चलो। गिरजाघर में सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।' 'जरा रुको! कई दिनों के परिश्रम का परिणाम आनेवाला
है। पूरा काम करके ही चल सकता हूँ, नहीं तो सब विफल हो जाएगा।'
वह दूल्हा था रैबीज के टीकों और अन्य कई जीवनरक्षक दवाओं का आविष्कारक, महान् वैज्ञानिक लुई पाश्चर । प्रख्यात वैज्ञानिक आइंसटीन अपने कक्ष में अध्ययन-चिंतन में लीन थे तभी उनकी पत्नी गुस्से में पैर पटकती आई, 'हमारा नौकर पक्का कामचोर है। हमें नया मेहनती नौकर खोजना होगा।'
आइंसटीन का जवाब था, 'तुम ठीक कह रही हो।' थोड़ी देर बाद उनका नौकर कक्ष में आया, 'जनाब ! अब मेरा यहाँ काम करना मुश्किल है। ऐसी गुस्सैल मालकिन शायद दुनिया में दूसरी नहीं होगी।"
कार्यव्यस्त आइंसटीन का जवाब था, 'तुम ठीक कह रहे हो।' थोड़ी देर बाद पत्नी और नौकर दोनों आ गये, 'आप क्या
कहे रहे हैं? आप किसको ठीक कह रहे हैं ?" आइंसटीन बोले, 'जाओ भाई अपना अपना काम करो और मुझे भी काम करने दो। मैंने कह तो दिया तुम दोनों ठीक कह रहे हो।' और वे काम में व्यस्त हो गये।
लोकमान्य तिलक के पैर में ज़ख्म हो गया था। बगैर बेहोश किये उनके पैर का आपरेशन होने जा रहा था। डॉक्टर चिंतित थे। तिलकजी ने लिखने के लिए कागज-पेन की माँग की। वे गणित का एक कठिन सवाल हल करने में जुट गये। अब तक पैर के ज़ख्म का आपरेशन किया जा चुका था। पट्टी बाँधते हुए डॉक्टर बोले-
'आपरेशन सफल रहा। हमारा काम हो चुका।'
तिलक बोले, 'इधर मेरा भी काम पूरा हो गया। ' आपरेशन होते-होते वे गणित का कठिन सवाल हल कर चुके थे। उन्हें पीड़ा का अनुभव तक नहीं हुआ।
एक बार रसायनज्ञ प्रो. नील्स बोर यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ साइंस, कलकत्ता में भाषण करने पधारे। प्रो. बोस भी व्याख्यान सुन रहे थे, लेकिन वह आँखें बन्द किये हुए थे, मानो ऊँघ रहे हों।
अचानक एक सवाल करते करते और अटक गये और बोले, 'शायद प्रो. मेरी सहायता करें।' प्रो. बोस ने अपनी आँखें खोली औरत आये तथा गणित का वह तामझाकर अपनी सीट पर पुन: आकर फिर उसी तरह ऊँघने लगे।
एक बार सरोजिनी नायडू अध्यापक पूर्णसिंह के घर गई और चर्चा नई प्रकाशित काव्य कृतियों 'बीस' तथा 'सिस्टर्ड ऑफ स्पिनिंग व्हील' की कविताओं पर होने लगी। दोनों काव्य की गहरी संगीतात्मकता में खो गये। पूर्णसिंह की धर्मपत्नी मायादेवी चाय के प्याले और चीनी की डलियों की कटोरी दोनों के सामने रखकर चली गई। सरोजिनी नायडू चिमटी से उठा उताकर चीनी की डलियाँ प्याले में डालने लगी और बराबर डालती रही। उन्हें यह ध्यान ही नहीं रहा कि प्याला डलियों से भरता जा रहा है। प्याले में चीनी की डलियाँ भर जाने से चाय छलक कर मेज़पोश को भिगोकर मेज पर से भी रिस कर नीचे गिरने लगी। तब कहीं जाकर उनका ध्यान भंग हुआ।
संगीताचार्य विष्णुदिगम्बर पलुष्कर लाहौर में शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देते थे। अध्यापक पूर्णसिंह की पत्नी श्रीमती मायादेवी उनसे शास्त्रीय संगीत सीखा करती थीं।
एक दिन मायादेवी ने अनोखी घटना देखी। विष्णुदिगम्बर पलुष्कर आसन पर बैठे तानपूरा बजा रहे थे। वह संगीत की सुर-लहरी में इतने खो गये कि कुछ सुध ही नहीं थी। मायादेवी ने देखा एक विषधर घर की सीढ़ियाँ चढ़कर विष्णुजी के सामने फन उठाए खड़ा है। वह हिलता डुलता नहीं था। पर संगीतज्ञ विष्णुजी ने एक क्षणभर को भी आँख उठाकर उस साँप को नहीं देखा। विष्णुजी संगीत की दुनिया में खोये थे और उनके शिष्य हक्के-बक्के इस दृश्य को देख रहे थे। किसी में भी शोर मचाने या उस विषधर को वहाँ से हटाने का साहस नहीं हो रहा था। विष्णुदिगम्बर का आलाप समाप्त हुआ। संगीत की लहरियाँ थम गई तो साँप चुपचाप सीढ़ियाँ उतरकर अपनी राह चला गया। सबने राहत की साँस ली।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर कमरे में बैठे कविता लिखने में व्यस्त थे कि इतने में छुरा लिए एक गुण्डे ने उनके कमरे में प्रवेश किया, उसे किराये पर हत्या करने के लिए किसी ईर्ष्यालु ने भेजा था। रवीन्द्रनाथ ने आँख उठाकर उसकी तरफ देखा और सारा
मामला भाँप लिया। उन्होंने अँगुली का इशारा करके उसे कोने में
पड़े स्टूल पर बैठ जाने को कहा, 'देखते नहीं मैं कितना जरूरी काम कर रहा हूँ' रवीन्द्रनाथ ने बनावटी क्रोध दिखाते हुए आँखें तरेरौं। हत्यारा सकपका गया। इतना निर्भीक और सन्तुलित व्यक्ति उसने पहले कभी नहीं देखा था। वह कुछ देर तो बैठा रहा, पर पीछे उसके पैर उखड़ गये और वह उलटे पैरों भाग खड़ा हुआ।
राजा ने प्लेटो को फांसी की सज़ा दी। किसी कारण फांसी नहीं हो सकी। फांसी की सज़ा के बदले प्लेटो को गुलाम बना दिया गया। उस समय गुलाम बनाया जाना भी बहुत बड़ा दण्ड था। किसी स्वतन्त्र व्यक्ति को गुलाम बना देना कई बार मृत्युदण्ड से भी बुरा माना जाता था। लेकिन जब राजा को यह पता चला कि जिस प्लेटो को उसने गुलाम बनाया है, वह बहुत बड़ा दार्शनिक और तत्त्वचिंतक है तब उसने उसे सजा से तत्काल मुक्त कर दिया। राजा ने प्लेटों से क्षमा माँगी कि न पहचानने की वजह से उससे भूल हो गई। उसने कहा प्लेटो को अनजाने में कष्ट देने के लिए वह शर्मिन्दा है और क्षमा चाहता है। इसपर प्लेटो ने राजा से कहा कि 'मैं सत्य शोध में लीन हूँ। मुझे पता नहीं कि तुमने मुझे फांसी की सजा दी और मुझे गुलाम बनाया। मैं किसको क्षमा करूँ। मुझे तो पता ही नहीं कि तुमने क्या किया है ?"
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