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उपनिषद् का प्रारम्भ उक्त श्रुति वाक्य से होता है। इसका अर्थ है, वह भी पूर्ण है - 'पूर्ण श्रदः', यह भी पूर्ण है-'पूर्ण अदम्', पूर्ण से पूर्ण निकलता है- 'पूर्णात् पूर्ण उदच्यते', पूर्ण में से पूर्ण निकाल लें- 'पूर्णस्य पूर्ण आदाय', तब भी पूर्ण ही बच रहता है- 'पूर्ण एव श्रवशिष्यते'। पूरे में से पूरा निकाल लें तब भी पूरा बच रहे, पूरे में पूरा जोड़ दें तब भी पूरा रहे यह विलक्षण बात उपनिषद् ने कही है। क्या ऐसा हो सकना सम्भव है ? जहाँ तक संसार की सीमित वस्तुनों का सम्बन्ध है, ऐसा असम्भव है। इसका यह अर्थ होगा कि २ में २ जोड़ दें तब भी २ ही बना रहे, २ में से २ निकाल दें तब भी २ ही बना रहे। सांसारिक वस्तुओं में तो ऐसा सम्भव नहीं, परन्तु उपनिषद् संसार की बात नहीं कह रही । उपनिषद् की यह चर्चा भौतिक नहीं, आध्यात्मिक जगत् की है। आत्मा के जगत् में भौतिक गणित नहीं चलती।
आध्यात्मिक गणित का यही हिसाब है। वहाँ देने से घटता नहीं बढ़ता है, लेने से बढ़ता नहीं घटता है ।
जगत् को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं-भौतिक जगत्, जीवात्मा का जगत्, परमात्मा का जगत् । भौतिक जगत् में वस्तु जोड़ से बढ़ती, निकालने से घटती है; जीवात्मा के जगत् में जोड़ से बढ़ भी सकती है, घट भी सकती है, निकालने से घट भी सकती है, बढ़ भी सकती है, परमात्मा के जगत् में जोड़ से न बढ़ती है, न घटती है, निकालने से न घटती है, न बढ़ती है—कुछ भी करें, वैसी की वैसी रहती है-पूर्ण में पूर्ण जोड़ दें तब भी पूर्ण ही रहती है, पूर्ण में से पूर्ण निकाल लें तब भी पूर्ण ही रहती है। इस विलक्षण गणित का क्या अर्थ है ?
(१) भौतिक जगत् में भौतिक जगत् में अगर चार में चार जोड़ दिया जाय, तो आठ हो जाता है, अगर चार में से चार घटा दिया जाय तो शून्य रह जाता है। यह बच्चों के भी अनुभव की बात है ।
(२) जीवात्मा के जगत् में जीवात्मा के जगत् में भौतिक जगत् का नियम बदल जाता है। अगर मनुष्य किसी को प्रेम देता है, तो देने के कारण वह घटता नहीं, उल्टा जिसे प्रेम दिया जाता है उसकी प्रतिक्रिया के रूप में प्रेम देने से प्रेम बढ़ जाता है। इसी प्रकार अगर कोई हम पर क्रोध करे, और उसकी प्रतिक्रिया के रूप में हम क्रोध के स्थान में प्रेम जतलायें, तो क्रोध करने वाले का क्रोध घट या हट जाता है। यहाँ देने से घटने के स्थान में बढ़ना पाया जाता है, प्रेम दिया तो प्रेम बढ़ा। इसी प्रकार अगर कोई हमें क्रोध में गाली-पर-गाली देता चला जाय और हम उन गालियों को हँस-हँस कर लेते चले जायें, तो हमारा क्रोध गालियाँ लेने पर भी कम होता जला जायगा, दूसरे का क्रोध गालियाँ देते-देते बढ़ता जायगा। यहां गालियाँ लेने से क्रोध का बढ़ने के स्थान में घटना पाया जाता है, गालियाँ लों, हँस दिये और क्रोध घटा; गालियाँ देने वाले का क्रोध घटने के स्थान में बढ़ सकता है- देने से घटना चाहिये, यहाँ देने से बढ़ सकता है।
(३) परमात्मा के जगत् में- भौतिक जगत् निर्जीव है, इसलिये वहाँ भौतिक पदार्थ में प्रतिक्रिया नहीं होती, जोड़ें तो जुड़ता गया, घटायें तो घटता गया; जीवात्मा का जगत् सजीव है, वहाँ सजीवता के कारण शुभाशुभ कर्म के द्वारा प्रतिक्रिया होती है, परन्तु वहाँ निर्लेपता नहीं, इच्छा है, प्रेम करें या न करें, क्रोध करें या न करें। परमात्मा का जगत् निर्लेप है. वहाँ कर्म नहीं, इच्छा नहीं, इसलिये न वहाँ बढ़ती है, न घटती है; वहाँ निरतिशयता है, पूर्णता है । इच्छा रहितता तथा पूर्णता में न कुछ जोड़ा जा सकता है, न कुछ घटाया जा सकता है। अगर पूर्णता में कुछ जोड़ा जा सके तो उतने अंश में वह अपूर्ण है, इस- लिये पूर्ण नहीं है; अगर पूर्णता में से कुछ घटाया जा सके, तो उतने अंश में वह अपूर्ण है, इसलिये वह पूर्ण नहीं है। पूर्णता का अर्थ ही यह है कि अगर उसमें कुछ जोड़ा जाय तब उसमें बढ़ती नहीं, अगर उसमें से कुछ घटाया जाय तब उसमें घटती नहीं । दूसरे शब्दों में, न उसमें कुछ जोड़ा जा सकता है, न उसमें से कुछ घटाया जा सकता है। इसी भाव को अत्यन्त कवितामयी भाषा में श्रुति में कह दिया कि पूर्ण में पूर्ण जोड़ दिया जाय तब भी वह पूर्ण ही रहता है, पूर्ण में से पूर्ण घटा दिया जाय तब भी वह पूर्ण ही रहता है। पूर्णता की इससे बढ़कर कोई परिभाषा नहीं हो सकती।
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